Wednesday, May 4, 2011

मैं

मुझमे एक ठहराव  है,
कुछ  बहता सा ठहराव,
कभी उठता है, कभी गिरता  है,
कभी मद्धम है, कभी जलता है.

शायद कुछ कहना चाहता है,
लगता है मेरे अंदर रहना चाहता है.
मुझे खुद मुझसे मिलाने की हसरत है उसकी.
हर डगर-नगर मेरे साथ है वो.
हर सफ़र-सहर मेरे साथ है वो.
अब सपना मंजिलों का नहीं,
रास्तों का है ...
कल तक जो आंसू दर्द की पहचान थे...
अब वही मीठी मुस्कान हैं.
ये नशा दर्द का जीवन दान बना.
एक शरीर और एक मन था,
शरीर आज भी है ..
मन का कन्यादान हुआ,
जीवन ने मृत्यु को किया --
ये मेरा ब्याह आध्यात्म से हुआ.

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